मां का ख़्वाब maa ka khwab Allama iqbal

maa ka khwab,maa ka khwab allama iqbal
maa ka khwab allama iqbal


मैं सोई जो इक शब तो देखा ये ख़्वाब

बढ़ा और जिस से मिरा इज़्तिराब

ये देखा कि मैं जा रही हूँ कहीं

अँधेरा है और राह मिलती नहीं

लरज़ता था डर से मिरा बाल बाल

क़दम का था दहशत से उठना मुहाल

जो कुछ हौसला पा के आगे बढ़ी

तो देखा क़तार एक लड़कों की थी

ज़मुर्रद सी पोशाक पहने हुए

दिए सब के हाथों में जलते हुए

वो चुप-चाप थे आगे पीछे रवाँ

ख़ुदा जाने जाना था उन को कहाँ

इसी सोच में थी कि मेरा पिसर

मुझे इस जमाअत में आया नज़र

वो पीछे था और तेज़ चलता न था

दिया उस के हाथों में जलता न था

कहा मैं ने पहचान कर मेरी जाँ

मुझे छोड़ कर आ गए तुम कहाँ

जुदाई में रहती हूँ मैं बे-क़रार

पिरोती हूँ हर रोज़ अश्कों के हार

न पर्वा हमारी ज़रा तुम ने की

गए छोड़ अच्छी वफ़ा तुम ने की

जो बच्चे ने देखा मिरा पेच-ओ-ताब

दिया उस ने मुँह फेर कर यूँ जवाब

रुलाती है तुझ को जुदाई मिरी

नहीं इस में कुछ भी भलाई मिरी

ये कह कर वो कुछ देर तक चुप रहा

दिया फिर दिखा कर ये कहने लगा

समझती है तू हो गया क्या इसे?

तिरे आँसुओं ने बुझाया इसे!

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